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Saturday, March 9, 2013

मेरी जुबाँ से कभी, कुछ दर्द अगर उभर पाए

मेरी जुबाँ से कभी, कुछ दर्द अगर उभर पाए,
सारी बहारें तभी खिज़ा में जरुर बदल जाए; 
कातिब-ए-दर्द, तुने सब पन्ने ऐसे लिखे हैं, 
की ना तो मैं कुछ कह सकूं, न कोई उन्हें समज पाए | 
मुखातिब होते भी, मेरी सुनवाई कभीहोती नहीं, 
उल्फत का तलबगार एक गुनाहगार नज़र आये | 
भूले से भी तु अगर सामने आये, मतलब नहीं अब, 
दास्तां-ए-दर्द निकल जाए, ओर न कोई समज पाए | 
                               
                      . .. जनक म देसाई

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