मेरी जुबाँ से कभी, कुछ दर्द अगर उभर पाए,
सारी बहारें तभी खिज़ा में जरुर बदल जाए;
कातिब-ए-दर्द, तुने सब पन्ने ऐसे लिखे हैं,
की
ना तो मैं कुछ कह सकूं, न कोई उन्हें समज पाए |
मुखातिब होते भी, मेरी सुनवाई कभीहोती नहीं,
उल्फत का तलबगार एक गुनाहगार नज़र आये |
भूले से भी तु अगर सामने आये, मतलब नहीं अब,
दास्तां-ए-दर्द निकल जाए, ओर न कोई समज पाए |
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.. जनक म देसाई
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